Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः कर्मभूमि


भाग 10

इधर सकीना जनाने जेल में पहुंची, उधर सुखदा, पठानिन और रेणुका की रिहाई का परवाना भी आ गया। उसके साथ ही नैना की हत्या का संवाद भी पहुंचा। सुखदा सिर झुकाए मूर्तिवत् बैठी रह गई, मानो अचेत हो गई हो। कितनी महंगी विजय थी ।
रेणुका ने लंबी सांस लेकर कहा-दुनिया में ऐसे-ऐसे आदमी पड़े हुए हैं, जो स्वार्थ के लिए स्त्री की हत्या कर सकते हैं।
सुखदा आवेश में आकर बोली-नैना की उसने हत्या नहीं की अम्मां, यह विजय उस देवी के प्राणों का वरदान है।
पठानिन ने आंसू पोंछते हुए कहा-मुझे तो यही रोना आता है कि भैया को दु:ख होगा। भाई-बहन में इतनी मोहब्बत मैंने नहीं देखी।
जेलर ने आकर सूचना दी-आप लोग तैयार हो जाएं। शाम की गाड़ी से सुखदा, रेणुका और पठानिन, इन महिलाओं को जाना है। देखिए हम लोगों से जो खता हुई हो, उसे मुआफ कीजिएगा।
किसी ने इसका जवाब न दिया, मानो किसी ने सुना ही नहीं। घर जाने में अब आनंद न था। विजय का आनंद भी इस शोक में डूब गया था।
सकीना ने सुखदा के कान में कहा-जाने के पहले बाबूजी से मिल लीजिएगा। यह खबर सुनकर न जाने दुश्मनों पर क्या गुजरे- मुझे डर लग रहा है।
बालक रेणुकान्त सामने सहन में कीचड़ से फिसलकर गिर गया था और पैरों से जमीन को इस शरारत की सजा दे रहा था। साथ-ही-साथ रोता भी जाता था। सकीना और सुखदा दोनों उसे उठाने दौड़ीं, और वृक्ष के नीचे खड़ी होकर उसे चुप कराने लगीं।
सकीना कल सुबह आई थी पर अब तक सुखदा और उसमें मामूली शिष्टाचार के सिवा और बात न हुई थी। सकीना उससे बातें करते झेंपती थी कि कहीं वह गुप्त प्रसंग न उठ खड़ा हो। और सुखदा इस तरह उससे आंखें चुराती थी, मानो अभी उसकी तपस्या उस कलंक को धोने के लिए काफी नहीं हुई।
सकीना की सलाह में जो सहृदयता भरी हुई थी, उसने सुखदा को पराभूत कर दिया। बोली-हां, विचार तो है। तुम्हारा कोई संदेशा कहना है-
सकीना ने आंखों में आंसू भरकर कहा-मैं क्या संदेशा कहूंगी बहूजी- आप इतना ही कह दीजिएगा-नैनादेवी चली गईं, पर जब तक सकीना जिंदा है, आप उसे नैना ही समझते रहिए।
सुखदा ने निर्दय मुस्कान के साथ कहा-उनका तो तुमसे दूसरा रिश्ता हो चुका है।
सकीना ने जैसे इस वार को काटा-तब उन्हें औरत की जरूरत थी, आज बहन की जरूरत है।
सुखदा तीव्र स्वर में बोली-मैं तो तब भी जिंदा थी।
सकीना ने देखा, जिस अवसर से वह कांपती रहती थी, वह सिर पर आ ही पहुंचा। अब उसे अपनी सफाई देने के सिवा और कोई मार्ग न था।
उसने पूछा-मैं कुछ कहूं, बुरा तो न मानिएगा-
'बिलकुल नहीं।'
'तो सुनिए-तब आपने उन्हें घर से निकाल दिया था। आप पूरब जाती थीं, वह पश्चिम जाते थे। अब आप और वह एक दिल हैं, एक जान हैं। जिन बातों की उनकी निगाह में सबसे ज्यादा कद्र थी, वह आपने सब पूरी कर दिखाईं। वह जो आपको पा जाएं, तो आपके कदमों का बोसा ले लें।'
सुखदा को इस कथन में वही आनंद आया, जो एक कवि को दूसरे कवि की दाद पाकर आता है, उसके दिल में जो संशय था वह जैसे आप-ही-आप उसके हृदय से टपक पड़ा-यह तो तुम्हारा खयाल है सकीना उनके दिल में क्या है, यह कौन जानता है- मरदों पर विश्वास करना मैंने छोड़ दिया। अब वह चाहे मेरी कुछ इज्जत करने लगें-इज्जत तो तब भी कम न करते थे, लेकिन तुम्हें वह दिल से निकाल सकते हैं, इसमें मुझे शक है। तुम्हारी शादी मियां सलीम से हो जाएगी, लेकिन दिल में वह तुम्हारी उपासना करते रहेंगे।
सकीना की मुद्रा गंभीर हो गई। नहीं, वह भयभीत हो गई। जैसे कोई शत्रु उसे दम देकर उसके गले में फंदा डालने जा रहा हो। उसने मानो गले को बचाकर कहा-तुम उनके साथ फिर अन्याय कर रही हो बहनजी वह उन आदमियों में नहीं हैं, जो दुनिया के डर से कोई काम करे। उन्होंने खुद सलीम से मेरी खत-किताबत करवाई। मैं उनकी मंशा समझ गई। मुझे मालूम हो गया, तुमने अपने रूठे हुए देवता को मना लिया। मैं दिल में कांपी जा रही थी कि मुझ जैसी गंवारिन उन्हें कैसे खुश रख सकेगी। मेरी हालत उस कंगले की-सी हो रही थी जो खजाना पाकर बौखला गया हो कि अपनी झोंपड़ी में उसे कहां रखे, कैसे उसकी हिफाजत करे- उनकी यह मंशा समझकर मेरे दिल का बोझ हल्का हो गया। देवता तो पूजा करने की चीज है वह हमारे घर में आ जाय, तो उसे कहां बैठाएं, कहां सुलाएं, क्या खिलाएं- मंदिर में जाकर हम एक क्षण के लिए कितने दीनदार, कितने परहेजगार बन जाते हैं। हमारे घर में आकर यदि देवता हमारा असली रूप देखे, तो शायद हमसे नफरत करने लगे। सलीम को मैं संभाल सकती हूं। वह इसी दुनिया के आदमी हैं, और मैं उन्हें समझा सकती हूं।
उसी वक्त जनाने वार्ड के द्वार खुले और तीन कैदी अंदर दाखिल हुए। तीनों ने घुटनों तक जांघिए और आधी बांह के ऊंचे कुरते पहने हुए थे। एक के कंधो पर बांस की सीढ़ी थी, एक के सिर पर चूने का बोरा। तीसरा चूने की हांडियां, कूंची और बाल्टियां लिए हुए था। आज से जनाने जेल की पुताई होगी। सालाना सफाई और मरम्मत के दिन आ गए हैं।
सकीना ने कैदियों को देखते ही उछलकर कहा-वह तो जैसे बाबूजी हैं, डोल और रस्सी लिए हुए, तो सलीम सीढ़ी उठाए हुए हैं।
यह कहते हुए उसने बालक को गोद में उठा लिया और उसे भींच-भींचकर प्यार करती हुई द्वार की ओर लपकी। बार-बार उसका मुंह चूमती और कहती जाती थी-चलो, तुम्हारे बाबूजी आए हैं।
सुखदा भी आ रही थी, पर मंद गति से उसे रोना आ रहा था। आज इतने दिनों के बाद मुलाकात हुई तो इस दशा में।
सहसा मुन्नी एक ओर से दौड़ती हुई आई और अमर के हाथ से डोल और रस्सी छीनती हुई बोली-अरे यह तुम्हारा क्या हाल है लाला, आधो भी नहीं रहे, चलो आराम से बैठो, मैं पानी खींच देती हूं।
अमर ने डोल को मजबूती से पकड़कर कहा-नहीं-नहीं, तुमसे न बनेगा। छोड़ दो डोल। जेलर देखेगा, तो मेरे ऊपर डांट पड़ेगी।
मुन्नी ने डोल छीनकर कहा-मैं जेलर को जवाब दे लूंगी। ऐसे ही थे तुम वहां-
एक तरफ से सकीना और सुखदा दूसरी तरफ से पठानिन और रेणुका आ पहुंचीं पर किसी के मुंह से बात न निकलती थी। सबों की आंखें सजल थीं और गले भरे हुए। चली थीं हर्ष के आवेश में पर हर पग के साथ मानो जल गहरा होते-होते अंत को सिरों पर आ पहुंचा।
अमर इन देवियों को देखकर विस्मय-भरे गर्व से फूल उठा। उनके सामने वह कितना तुच्छ था, कितना नगण्य। किन शब्दों में उनकी स्तुति करे, उनकी भेंट क्या चढ़ाए- उसके आशावादी नेत्रों में भी राष्ट' का भविष्य कभी इतना उज्ज्वल न था। उनके सिर से पांव तक स्वदेशाभिमान की एक बिजली-सी दौड़ गई। भक्ति के आंसू आंखों में छलक आए।
औरों की जेल-यात्रा का समाचार तो वह सुन चुका था पर रेणुका को वहां देखकर वह जैसे उन्मत्ता होकर उनके चरणों पर गिर पड़ा।
रेणुका ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते हुए कहा-आज चलते-चलते तुमसे खूब भेंट हो गई बेटा ईश्वर तुम्हारी मनोकामना सफल करे। मुझे तो आए आज पांचवां दिन है, पर हमारी रिहाई का हुक्म आ गया। नैना ने हमें मुक्त कर दिया।
अमर ने धड़कते हुए हृदय से कहा-तो क्या वह भी यहां आई है- उसके घर वाले तो बहुत बिगड़े होंगे-
सभी देवियां रो पड़ीं। इस प्रश्न ने जैसे उनके हृदय को मसोस दिया। अमर ने चकित नेत्रों से हरेक के मुंह की ओर देखा। एक अनिष्ट शंका से उसकी सारी देह थरथरा उठी। इन चेहरों पर विजय की दीप्ति नहीं, शोक की छाया अंकित थी। अधीर होकर बोला-कहां है नैना, यहां क्यों नहीं आती- उसका जी अच्छा नहीं है क्या-
रेणुका ने हृदय को संभालकर कहा-नैना को आकर चौक में देखना बेटा, जहां उसकी मूर्ति स्थापित होगी। नैना आज तुम्हारे नगर की रानी है। हरेक हृदय में तुम उसे श्रध्दा के सिंहासन पर बैठी पाओगे।
अमर पर जैसे वज्रपात हो गया। वह वहीं भूमि पर बैठ गया और दोनों हाथों से मुंह ढांपकर ठ्ठक-ठ्ठटकर रोने लगा। उसे जान पड़ा, अब संसार में उसका रहना वृथा है। नैना स्वर्ग की विभूतियों से जगमगाती, मानो उसे खड़ी बुला रही थी।
रेणुका ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा-बेटा, क्यों उसके लिए रोते हो, वह मरी नहीं, अमर हो गई उसी के प्राणों से इस यज्ञ की पूर्णाहुति हुई है ।
सलीम ने गला साफ करके पूछा-बात क्या हुई- क्या कोई गोली लग गई-
रेणुका ने इस भाव का तिरस्कार करके कहा-नहीं भैया, गोली क्या चलती, किसी से लड़ाई थी- जिस वक्त वह मैदान से जुलूस के साथ म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर की ओर चली, तो एक लाख आदमी से कम न थे। उसी वक्त मनीराम ने आकर उस पर गोली चला दी। वहीं गिर पड़ी। कुछ मुंह से न कह पाई। रात-दिन भैया ही में उसके प्राण लगे रहते थे। वह तो स्वर्ग गई हां, हम लोगों को रोने के लिए छोड़ गई।
अमर को ज्यों-ज्यों नैना के जीवन की बातें याद आती थीं, उसके मन में जैसे विषाद का एक नया सोता खुल जाता था। हाय उस देवी के साथ उसने एक भी कर्तव्य का पालन न किया। यह सोच-सोचकर उसका जी कचोट उठता था। वह अगर घर छोड़कर न भागा होता, तो लालाजी क्यों उसे लोभी मनीराम के गले बंध देते और क्यों उसका यह करूणाजनक अंत होता ।
लेकिन सहसा इस शोक-सफर में डूबते हुए उसे ईश्वरीय विधान की नौका-सी मिल गई। ईश्वरीय प्रेरणा के बिना किसी में सेवा का ऐसा अनुराग कैसे आ सकता है- जीवन का इससे शुभ उपयोग और क्या हो सकता है- गृहस्थी के संचय में स्वार्थ की उपासना में, तो सारी दुनिया मरती है। परोपकार के लिए मरने का सौभाग्य तो संस्कार वालों ही को प्राप्त है। अमर की शोक-मग्न आत्मा ने अपने चारों ओर ईश्वरीय दया का चमत्कार देखा-व्यापक, असीम, अनंत।

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